Friday 15 May 2015

दरकता समाज

सम्बोधन संबंधहीन सब
सार्थकता से दूर हो चले ।
गरिमामय जब रहा न कुछ भी
गर्वित पुंज कहाँ से लाऊँ ॥

संस्कार सब लुप्त हो रहे
नैतिकता का घोर अकाल ।
अपने ही अपनों के दुश्मन
किसे अपनत्व का पाठ सिखाऊँ ॥

कहाँ लुप्त है सहनशीलता
भरी कलह से हर दीवार ।
लुकाछिपी सा त्रासित जीवन
फिर भी नित्य निकेतन जाऊँ ॥

संवादहीन चुपचाप अकिंचन
अवचेतन मन शून्य झाँकता ।
गहन अंधेरा मन मंदिर मे
कैसे ज्ञान की ज्योति जलाऊँ ॥

आतुरता को नहीं प्रतीक्षा
दरकिनार कर सबकी इच्छा ।
किस वजूद की यह मंत्रणा
नया कौन सा गीत सुनाऊँ ॥

देव पूज्य थी धरा हमारी
पढ़ते आए , सुनते आए ।
धूल–धूसरित शिला पट्ट अब
नया कौन अभिलेख सजाऊँ ॥



·        जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Wednesday 6 May 2015

ज़िंदगी तेरे कितने रंग


असमंजस ,  असमय पीड़ा का
फिसल रही मुस्कान, क्रीड़ा का
आँख उनींदी , तन मे अकड़न
सच को कैसे मै जताऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥

हिल – मिल  , सारे तथ्य चुराकर
झूठ को सच और सच झूठ बनाकर
प्रथम प्रविष्ठि , पूर्ण सशंकित
पीठ पे कितने खंजर खाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥

बेवजह  संघर्ष , चाल निरापद
निगमित हो कुंठित हुआ कद
पर पीड़ा से सुख का अनुभव
किसको है , मै क्या बताऊँ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥

इठलाना क्या , इतराना क्या
अनजाना पथ , पथिक पराया
मेरी भ्रांति , या नासमझी
इस मन को कैसे समझाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥

हर पल उलझन, नया उलहना
शंकित धड़कन, नई उपासना
मंदिर मस्जिद , योगी तांत्रिक
और कहाँ अर्जी लिखवाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥

पीकर ज्वाला , खा अंगारे
तूफानो को लगा किनारे
अनुराग मे सिंहनाद यह
बन भैरव अब हाथ उठाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥


·        जयशंकर प्रसाद द्विवेदी