Thursday 28 January 2016

जियारत सरीखे

कहने की हिम्मत भी सुनने का जज्बा ।
सहा जिल्लतों को शरारत सरीखे ॥
ना देखा बुरा ना  की कोई कवायद ।
सहे हर सितम को तिजारत सरीखे ॥
न कोई गिला इस जमाने से हमको ।
जी ही लूँगा इसको नसाफत सरीखे ॥
मधुर कुछ नहीं ,सब तीखे ही तीखे । 
जिया गुरबतों को, जियारत सरीखे ॥



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

आओ मिल गणतन्त्र मनाएँ

मौका है , राजघाट हो आयें
आओ मिल गणतन्त्र मनाएँ ।
वर्ष का पहला राष्ट्र दिवस है
चलो फिर कहीं तिरंगा फहराएँ ।
फिर तो बस रोज घोटाले हैं
मन से रीते दिल के काले हैं ।
नहीं बची शेष कोई आशा है
जीवन उत्सर्ग तमाशा है  ।
भाषा का मानो भान नहीं
बीरों के प्रति सम्मान नहीं ।
हम इन्हे विधाता माने बैठे
चलो ऐसों के कान उमेठें ।
शायद गणतन्त्र समझ जाएँ
कलुष तनिक ना मन मे लाएँ ।
आओ मिल गणतन्त्र मनाएँ ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Saturday 9 January 2016

गइल भइसिया पानी मे




बागड़ बिल्ला नेता बनिहे
करिया अक्षर वेद बखानिहे
केहु के कब्जावल माल पर
मार पालथी शान बघरीहे ।

   कुरसी से जब  पेट भरल ना
       खइलस चारा सानी  मे ।
       गइल भइसिया पानी मे ॥

सगरी मचईहे हाहाकार
करीहे कुल उलटा ब्यापार
मरन अपहरन रहजनी पर
धारिहे आपन एकाधिकार ।
      
       जनता तभियो मन परल ना
              डलिहे डेरवो रजधानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥

नीमन मनई घर छोड़ परइहे
इनकर पीछे  उ उहवों जईहे
लूट खसोट भा हेरा फेरी
कवनों खेला न कबों भुलईहे ।

       इनका बुझला अतनों सरल ना
              रेकड़ तुरीहे बेईमानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥

कुरसी खाति कुछुवों बोलल
बिन जोगाड़ के धंधा खोलल
जनता के मरजाद का होला
कुकुर नीयन केनियों डोलल ।

      

       जबले उनकर जेब भरल ना
              ओरहन गइल कहानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥


पढ़ लिख के अब बस्ता ढोवल
मउज करत बा भर दिन सोवल
करम के हाल बा लोलक लइया
आन्हर लग्गे अब बइठल रोवल ।

       अतना देखलो पर भी मरल ना
              कुल बोरलस उ जवानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥

कतों घास के रोटी आउर कतहु भूखे पेट
कबों कबों त पनियों से नाही होला भेंट
पीढ़ी दर पीढ़ी बस करजे  देहलें
तबों घरे पर नाही  चढ़ल फ़रेठ ।

       अबो ले डरवार बनल ना
              भइल छेद ओरवानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी


Monday 4 January 2016

पठानकोट

विश्वासघात
कब तक सहोगे
बताओ अब ।

मंतब्य पूरा
रक्तरंजित माटी
दीख रही है ।

मरा गरीब
बेआंच युवराज
आखिर क्यों  ।

फँसती पेंच
कंहरते आदमी
लगी है आग ।

किसकी जांच
किसके लिए होगी
तरीका वही ।

कोसना बंद
मुहतोड़ जवाब
देश की इच्छा ।

आतंकवाद
एक ऑपरेशन
उनके घर ।

आतंकियों के
अटूट मंसूबों को
खत्म समझो ।

हुक्म सेना को
घुसपैठ से परे
सहर्ष दे दो ।

सवाल उठे
उठ लेने दो यार
समस्या खत्म ।

नितांत शांति
उसके बाद होगी
आवश्यक है ।

पठानकोट
फिर कभी नहीं
संभव होगा ।



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी