Sunday 8 March 2015

: एही लोकतन्त्र में :

नई व्यवस्था नए दौर के
नई नीति के नए तरीके
दिनो मे छत्तीस कोठी
राजनीति के सार ।। एही लोकतन्त्र में

छान - बीन के लदल जमाना
मकड़ जाल बा सधल बहाना
जन से बेहतर जन–प्रतिनिधिसब,
भरल अटारी चार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

देश से बेहतर विदेश भ्रमड़ हौ
अहित नाम के अधिग्रहण हौ
ले निवेश का नामरे बंदे,
सबसे भला व्यापार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

हर संभव सब वाद चला के
तद्भव – तत्सम रूप सुना के
लूट सके तो लूटके माला,
जनता बा आधार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

इतिहास  का  वर्तमान से
अभियान सब अभिमान से
बिन विभाग के मंत्री बनल ,
व्यर्थ देश के भार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

तुष्टि - करण आधा अधूरा
असंतुष्ट  पूरे  का  पूरा
सबसे बढ़िया सब कुछ चाही,
भयल देश उद्धार॥ एही लोकतन्त्र में ॥

मिलल निमंत्रण रात्रि भोज के
आदत बनल रोज रोज के
जोड़ – तोड़ के बने जुगाड़ू,
अनपढ़ , निपट – गँवार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

सुर – ताल बेढब - बेहाल
बेसुरीबजी करताल
सूटकेस से हेरा – फेरी,
कुर्सी पे अधिकार  ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

गाली – गलौज या यात्रा-रैली
शुरू  हुई  मेला  की  शैली
हँगामो से  सिर  फोडौवल ,
संसद मे जूतम – पैजार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥

पाप का घड़ाखाली बा अबही
छलकीजनता  जागी  तबही
होश संभालो’  समय शेष है ,
उमड़ी अब जनमत के ज्वार ॥ एही लोकतन्त्र में  ॥  



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Saturday 7 March 2015

: बुरा लगा :

समझा, जब  से  सच की पीड़ा ,
      बुरा लगा , लगने दो ।।

उजड़े नीड़ , बसंत का पतझड़
नीरीह घटा की उमड़ घुमड़
देखा  जब  से  कृषक की पीड़ा,
      बुरा लगा , लगने दो ।।

छुई – मुई ,  डरती  सकुचती
कठिन राह , पर चलती जाती
सोचा,  जब  नारी  की  पीड़ा ,
      बुरा लगा , लगने दो ।।

सब अलमस्त लुटेरे जग मे
जहर भरा उनके रग रग मे
जाना , जब से राजनीति की क्रीड़ा,
      बुरा लगा , लगने दो ।।

संप्रदाय का डर है किसको
सत्ता लोलुप , अभिमान है जिसको
बुत सी बन गयी , मन की पीड़ा,
      बुरा लगा , लगने दो ।।

घायल पड़ा बीच सड़क पर
देखा , पूछा , निकल गए ।
मानवता की  मृत्यु है यह
पत्थर को आँसू निकल गए ।
कहते  हुये  सब  सुने  गए
      बुरा लगा , लगने दो ।।  


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

Friday 6 March 2015

:मै और तुम :

चाटुकारिता के प्रहरी तुम,
राजनीति के  केजरीवाल ।
हर  बार  नई   नौटंकी,
सबको मालूम सबका हाल।

जब भी संरचना की बात चली ,
सबसे  मुखर  तुम्ही तो थे ।
कार्यान्वयन  की  राहों  मे,
बृहत्तम  ब्रेकर  तुम्ही तो थे।

शब्द  जाल के नए प्रणेता ,
विघटन के तुम खेवनहार ।
जिसने चाहा ,जब भी चाहा
नर्तकियों सा देखा व्यवहार ।

अंधकार के तुम हो स्वामी,
विशिष्टता  के  अंतर्यामी ।
सहचर्य से छत्तीस का रिस्ता
व्यतिरेक के सहज सुनामी।

अशिष्टता के शिद्धि प्रदाता,
शांति  मे  तुम  पाकिस्तान ।
कब कब किसको क्या बताऊँ ,
फिर  भी  मेरा  देश महान ।

कौन है अपना ,  कौन पराया ,
निश्चय , मै तो जान न पाया ।
अब तो  देख , समझ के बोलो ,
किसका कब , और कौन है आया ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

: करामाती डायरी :

कहीं कुछ चटक गया,फूटा कुछ टूटा कुछ
बनती बिगड़ती सँवरती सी सायरी ।।
राह से भटक गयी राजनीति आज की ,
सब कुछ बोल गयी , करामाती डायरी ॥

उग्रवादी , देशवादी , धर्म - निरपेक्षवादी,
सभी एक लाइन मे जाने कब से खड़े हैं ।
जेबी सी बी आई पर जब से लताड़ पड़ी
कच्चा चिट्ठा खोल गयी , करामाती डायरी ॥

देश बेची कांग्रेस , बची नहीं भाजपा,
जनतादल वाले पशु पालने मे बड़े हैं ।
बोला एक तांत्रिक इसारों ही इसारों मे
मेरे को भी तोल गयी, करामाती डायरी ॥  

जब राजे रजवाड़े भी हवाला के हवाले हुये
बड़े – छोटे सभी इसी  मिट्टी मे पले हैं ।
आईयस ,पीसीयस जाने कितने बुद्धिजीवी
सबको टटोल गयी , करामाती डायरी ।।

म्यूजियम बनाओ अब डायरियों के वास्ते
सारे ही घोटाले उस नायक ने तले हैं ।
अबकी  चुनाव भी  बेसरमी की हद है ,
मर्यादित चुनाव – चिन्ह, करामाती डायरी॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

जी सी ये की होली !

!! बुरा न मानो , होली है !!

लाली से बोले गोपाली कि कक्कड़ ने धमाल कर दिया ।।
फाड़ डाली झोली हमारी कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥

मान मनौयल कर के भी बढ़ा न अपना मेल
सपना  टूटा  अध्यक्षी का बिगड़ा सारा खेल
तेल की  सीसी टूटी , ये सारी किस्मत फूटी
चुभ गयी अँगुली करारी,  कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥

प्रसिद्धि अपनी हाथ मे ले बोला बड़े बड़े ही बोल
सपने मे ही  सही , किसी ने खोली  मेरी पोल
होल मे फटा  पटाका , तेरी  तो  साकी नाका
छूट गयी असली फ़रारी , कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥

ऐसा जगा ज्ञान ,जा खोला कैटरिंग का काम
कुछ नहीं आया हाथ मे , नाम हुआ बदनाम
शाम को मारे हर कोई  ,  सुबह दुलारे कोई
निकल गई सारी खुमारी , कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥

इस्क्वायर फिस्क्वायर खोला करके हील हवाला
इंटेक्स के करतूतों  से  निकला मेरा  दिवाला
प्याला कितने ही पीऊँ , कैसे हँस के जीऊँ
हाथ आई फिर से वही थाली, कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥

थाईलैंड की हवा मे जाकर  लगा विदेशी चस्का
खाया पीया हजम किया , लगा लगा के मस्का
बोलो अब किधर को जाऊँ , कहाँ पे ठौर बनाऊँ
छूट गयी अपनी दुआरी, कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया॥

ऑनलाइन के तड़के से हुआ हाल बेहाल
किसने मारी मेढकी , किसने फेका जाल
तब खुली नीद हमारी , थी जो जान से पियारी
बंद हुई केतनी केवाड़ी , कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥

काम चलाऊँ  सरकार के बचे हैं थोड़े दिन
दिल को और बढ़ाइए , सबको यही  यकीन
यकीन तो बढ़ता जाए , जीसीए खूब छकाये  
जीसीए की आई अरुड़ाई कि क़क्कड़ ने धमाल कर दिया ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

: छलका दर्द :

कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब  कुछ  सहते चले गए  ।
सम्मान की भूख बदस्तूर है ,
सिस्टम से  लड़ते चले गए ।

हर कोई रूठा , छूटा पीछे ,
भूखा  था जो  पैसों  का ।
जख्म का मरहम पाने को,
हम  दूर  होते  चले गए ।

मन की ख्वाहिस दफन हुई
कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
फर्ज़ पड़े हैं जस के  तस ,
हम अपनो से ही छले गए ।

साँसो का हक किसको दूँ मैं ,
किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
अपने ही बिछाये जालों मे
खुद ही फँसते चले गए ।

कौन  है अपना  कौन पराया
सब  पे  है  माया का साया ।
किस-किस दलदल की बात करूँ
पत्थर  मे  धंसते  चले  गए ।

श्याह  अंधेरा हर  कोने मे
कहाँ  दर्द है  अब  रोने मे ।
रीते  दिल  चाह है  रीति,
सब हँस कर देखो चले गए ।


अपनी समझ बताऊँ किसको ,
अपना दर्द सुनाऊँ  किसको।
मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं
यह  कहते सारे चले गए ।

शब्द हुए गुमनाम हैं जब से ,
नज़्म  बनी  बेनाम  हैं तबसे ।
जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं ,
गूंगे  भी  बककर  चले गए ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

: आखिर कब तक :

बहुत कठिन है
उखड़े पाँव को जमाना
रेगिस्तान मे
फसल उगाना
लेकिन
असंभव तो नहीं ।

टूटा हुआ विश्वास
पतझड़ प्लावित पेड़
समय के मरहम का
अनवरत
इंतजार ही नियति है ।

बदलता है सब कुछ
स्थापित भी
होता है सब कुछ
पेड़ो की हरियाली
चिड़ियों की चहक
और विश्वास ।

सींचना पड़ता है
इन सबको
ईमानदारी के पानी से
प्रतिबद्धता की खाद
के साथ
स्वयं का जीवन दर्शन ।

देखना समझना परखना
सब हो जाता है
अपनों और परायों की पहचान
समय चक्र की अकिंचन
सी हलचल
मापदंडो को डिगा देती है ।

संघर्षो से दो – चार होना
ही जीवन है
पलायन
कायरता की सम्पूर्ण
निंदनीय
सोपान ही तो है ।

लालच व ईर्ष्या
समूह मे चंद लोगों का
तुष्टीकरण
कारक बन जाता है
विघटन का
विनाश का ।

सोच की स्थिरता
जीवन का ठहराव
आत्ममंथन की प्रक्रिया
वस्तुस्थितियों का
दोहन
पराकाष्ठा है शून्यता की ।

संजीदापन
अनियमित समयान्तराल
निर्णय की
अनदेखी
समाज की अवहेलना
संज्ञा शून्य  या आत्मविभोर
आखिर कब तक  ।


n  जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

: इंतजार :

नयनन मे रतियन की
चढ़ी खुमारी भी
दिल मे प्यार भरी बतियन की
हो चुकी बीमारी भी
उनके सर चढ़कर
बोलती है ।

उनकी शोख हंसी से
खिलने लगते हैं रतनार
उनके हर अंगो मे
उतार आई मादकता
इंतजार मे है उस लमहे के
जब मिलेगा उन्हे
बाहों का हार

दोनों ओर उठ रही झंझावत भी
शायद एक सी है
उनके दिले कैनवास भी
एक ही चित्र से चित्रित हैं
वही दर्शाते हैं
एक तनहा प्यार ।

वह तनहा प्यार
समेटे है अपने में
दर्दे सिहरन भरी मिठास
शायद हास और परिहास भी
लेकिन
केवल दर्द को ही शीने से लगाए
जी रहे हैं दोनों ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी