Tuesday 15 September 2015

: जीवन की आपाधापी :


छूट गए वो प्यारे पल , जीवन की आपाधापी मे ।।

कौन था ,किसका था , कैसा था
कब था किसने – किसने जाना ।
मटियाला उजड़ा वियावान
जिसने भी जहां कहीं पहचाना ।

मिल नहीं पाया समुचित हल , जीवन की आपाधापी मे ।।  

हर बदलाव सुनहरा होगा
यह निर्णय हुआ कब था ।
नए पुरानो की सेल्फी का
यह चिर – मिलन हुआ कब था ।

नित प्रति बढ़ चली पहल , जीवन की आपाधापी मे ।।

हर जगह मची बस मार  धाड़
बह रही समस्याओं की बयार  ।
हर सच झूठा , झूठ है सच्चा
हुई शब्द संहिता तार  - तार ।

सूक्ष्म निरीक्षण को हर उज्वल , जीवन की आपाधापी मे ।।

जब दोषारोपण कण कण मे
कब दोष निकाला जाए ।
विषधर फैले हर घर मे
कब होश सम्हाला जाए ।

अनिर्णीत सबका अपना कल , जीवन की आपाधापी मे ।।

संरक्षित जीव – जन्तु होते हैं
या जाति व्यवस्था पता नहीं ।
जड़ जंगम का उद्गम स्थल
लोकतन्त्र की खता नहीं ।

कुनबे की बस क्षेम – टहल , जीवन की आपाधापी मे ।।

बिखर गया हर तिनका तिनका
जोड़ तोड़ की अंकगणित  सा ।
उत्थान - पतन की सुध ली किसने
रायसुमारी के क्रंदन  सा ।

अभिप्रेरित हो करते चल , जीवन की आपाधापी मे ।।

सब व्यस्त सुरक्षा छिन्न –भिन्न
नारी अभिरक्षा कब थी नवीन ।
सत्ता की सीमा पे जाकर
आचार संहिता कब रही कुलीन ।

अब गूगल की चिंता निर्मल , जीवन की आपाधापी मे ।।

छुई - मुई कब रही चेतना
पीड़ित शोषित की क्रसित वेदना ।
हर ज्ञाता ,  अनजान  बना
अनसुनी कर चरण बन्दना ।

सदमे मे भुला बिसरा कल, जीवन की आपाधापी मे ।
छूट गए वो प्यारे पल , जीवन की आपाधापी मे ।।



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Thursday 10 September 2015

: अपनी भारतीय रेल :

सन्नाटे को चीरती , चिग्घाड़ती
निरापद सी , पटरियों को रौंदती
गंतव्य की ओर अग्रसरित
निरीह है , अपनी भारतीय रेल ।

अनगिनत उद्घोषों के तले
दबी कुचली सी , सभी से छली हुई
वैभव और विकास से कोसों  दूर
अपराधिनी है , अपनी भारतीय रेल ।

भ्रष्टाचार ग्रसित , कलुष अभिसिंचित
सुविधा विहीन , स्वच्छता से दूर
सुरक्षा के नाम के दिखावे पर जीवित
भयभीत है , अपनी भारतीय रेल ।

आम आदमी के नाम से आम आदमी से दूर
सुविधा भोगियों के लिए आरक्षित
कभी बिलखती ,कभी सकुचाती, कभी इतराती
कुंठित है , अपनी भारतीय रेल ।

यात्रियों को चिढ़ाते गंदगी से भरे पूरे स्टेशन
मुफ्तखोर कर्मचारियों से सजा विभाग
खुद पर आँसू बहाते , कल पुर्जों से सुसज्जित
लकवाग्रस्त है , अपनी भारतीय रेल ।

परिवर्तन की बाट जोहती , बूढ़ी , त्रासित
सिर्फ एक व्यवहार दूढ्ती, पूरी शापित
कौन बनेगा दीप , जलाए खुद का दीपक
आशान्वित है , अपनी भारतीय रेल ।


शिक्षा हो केवल सरकारी , सबकी करो मान्यता रद्द
योग्यता को केवल मिले , प्रश्रय यत्र - सर्वत्र
भ्रष्टाचार विहीन व्यव्स्था खोलेगी यह पथ
अभावमुक्त हो निखरेगी , अपनी भारतीय रेल ।



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी