Monday 16 November 2015

मन्नतों का पर्व


मन्नतों का पर्व है छठ  
संस्कृति से ओत प्रोत  ।
तत्व  की परिकल्पना भी
खोल जाती स्वतः स्रोत ॥

संतुष्टि की सीमा विहीन
त्वरित दृष्ट प्रेरणा ।
शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि
देदीप्यमान चेतना  ॥

विश्व का जीवंत ब्रत यह
आत्म शुद्धि से मान तक ।
अर्घ की अवधारणा भी
अवसान से उदीयमान तक ॥

समवेत स्वर मे गुँजती
अन्तःकरण की शुद्धता ।
भानु की स्वर्णिम किरण
स्वतः बेंधती अवरुद्धता ॥

साधना आराधना से
संयमित की संवेदना ।
अभिमान से हो विरत
गूंजीयमान याचना ॥

फैलता आँचल सभी का
सामने प्रत्यक्ष देवता ।
बांटते चलते सभी को
पुरुसार्थ सबको है पता ॥

   


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Friday 13 November 2015

भाषा बम


केकर के दुलरुवा बाटे  ,
सुनल जाई गुनल जाई ।
नीमन लागी त ठीके बा ,
नाही त भर मन धुनल जाई ॥

पाकल खेत आ बनल लईकी,
दोसरा भरोष न छोडल जाई ।
जे भी संगे आ खाडियाई ,
मय बिरोध पर तोड़ल जाई ॥

माहौल बने त बन जायेदा
भाषा बम भी फोड़ल जाई ।
बिन पेनी के लोटा नीयन ,
केहु क चदरी ओढ़ल जाई ॥

साम दाम आ दंड भेद पर ,
नवका राग बजावल  जाई ।
धरम जात के बात नहीं कुछ ,
सुतल भाग जगावल जाई ॥

कुरसी चाही, केनियों मिले ,
पार्टीन के हिलावल जाई ।
पाँच साल तक आँख मूद के ,
देश के बिलवावल जाई ॥



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Thursday 12 November 2015

नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ

इकलौता पंजीकृत नेता
जबसे बनल पब्लिक चहेता ।
जनता हारी , हरदम हारेले
नेतवे बनिहे सर्व विजेता ॥
सरापल समाज क फरमाइस , केहर बिकास के आशा बबुआ ॥
                        नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ ॥

जाति धरम के डफली बजाई
सभ केहु आपन पचरा  गाई
मुहजोरन से हथजोरीया बा
एही तरे उ समाज  बनाई ॥
करुवा तेल लगल बा जब तक , इहे रही भाषा बबुआ ॥
                   नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ ॥

अझुराइल कुल्ह ममिला आई
पंचइती मे बईठ  बुझाई  
समाजवाद के नईकी रंगत
झम झम कईके झाल बजाई ॥
बाउर मन जब ले न जागी , सगरों रही निराशा बबुआ ॥
                   नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ  ॥

नेवता पठवल बड़की बात
संझही भगीहें छोड़ के साथ
चौथाई पर कब्जा बाटे
पूरा खातिर बौराइल जात ॥
राग रंग सब छोड़ छाड़ के , फिर गावा चौमासा बबुआ ॥
                   नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ  ॥

लोभ छोभ पर केचुली मराल
बेसवाद बतकुचन फानल ।
चिचरी पारेला लूरो नईखे
जाँगर जाने कहाँ पराइल ।
बुद्धि के भसुर सुतल बा जबले, इहे चली तमाशा बबुआ ॥
                      नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ ॥


औंजाइल मन, मनई खीझल
कटुताई से चितवन बींधल
अब जुमला क सुनल सुनावल
ना कर पाई मन के शीतल ॥
टूके टूक करेज ब जबले , नाही चली शियापा बबुआ ॥
                  नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ  ॥

अक्सरहा रहिला न फोड़ी भाड़
सपना भइल रहरी के दाल ।
आलू पियाज़ क नउका रेकड़
मनईन क अब पूछी के हाल ॥
नगीचा आई इयादों पारा , सउसे होश तराशा बबुआ ॥
                  नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ  ॥

अलता लागल गोड़ भुलाइल
मीना बिछुआ अब न भेटाई
पेटो पालल पहाड़ भइल जब
परब त्योहार केकरा सोहाई ॥
ढांकब तोपब कबले सभका , नाहीं चली अब झासा बबुआ ॥
                      नीमन गढ़ परिभाषा बबुआ ॥



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Tuesday 10 November 2015

दंभ

लय छंद से तर बतर
समानान्तर हासिए पर
उदास शब्द
आभाष देता एकांत
अचानक शांत हुये तूफान का ।

अनवरत अविचल
प्रतीक्षारत सभ्यता की उड़ान
अचानक मिली कामयाबी
पहचान की जमीन से दूर
जमी बर्फ का पिघलना
एहसास देता समाज
अंधेपन का  ॥

भावनाओं के उठते ज्वार
अतिरंजित परिकल्पना
वजूद की जद्दो जहद
सिर्फ दिखावा है
दोस्ती  का पैगाम
अल्फ़ाजों तक ही
संकुचित ॥

पीड़ा
कैसी है भला
कहीं मरहम का भी काम करती है
नकली रुदन
थोथी बयानवाजी
पुरस्कारों का उलट फेर
कालजयी होने का दंभ
यह कौन सा स्तम्भ ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Saturday 7 November 2015

परिभाषा

स्वार्थ परक गढ़ परिभाषा
सुचिता का दीप जलाने निकले
आत्म मंथन का होस नहीं
दूषित मन के अभ्यारण मे ॥

बायस हो चुकी लेखनी
चिंतन के द्वार हुये अवरुद्ध
परिभाषाओं मे होड़ मची है
वातायन के कण कण मे ॥

मौसम की अग्र सूचना
भाषा विज्ञानी देने आए
रंग मंच की गरिमा गाउँ
घिसट रहे अपने कारण मे ॥

उलझन इतनी सुलझाऊँ कब
सभी सत्य झुठलाते हैं
खुद डूबे आकंठ उसी मे
अभ्यस्त हुए दोषारोपण मे ॥ 

क्या बोलूँ , क्या सुनू सुनाऊँ
सब अपनी राग अलाप रहे
जिसने जाना जब भी जाना
लोग ब्यस्त उसके तर्पण मे ॥ 

खोज रहे भाषा का स्तर
गाँव गाँव मे शहर शहर मे
ज्ञान दीप शाश्वत सुमधुर सा
चहक उठे उजले दर्पण मे ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

भेड़चाल


कुछ नया शौक
कुछ नया प्रचलन
अभिव्यक्ति के प्रायोजित नए नए ठेकेदार
देश और समाज की कराते किरकिरी
कुछ बौखलाए से
किसी से अभिप्रेरित ।

एका एक जागी चेतना
जो सो रही थी वर्षों से
निरापद , निर्विकार सी
पहले की घटनाएँ
दंगे , हत्याओं का धारा प्रवाह
अपने ही घर से विस्थापितों का दमन चक्र से भी
नहीं होती आत्मा उद्वेलित
नहीं जगता आत्मज्ञान
वो निर्देशित ही तो हैं ।

खुद का कृत्य
परम पावन लगता है
भले ही गुजरा हो
लाशों को रौंदकर
आज  उनकी चहल कदमी
उन्हे शर्मशार भी नहीं करती
उनकी ये बौखलाहट
उनके कुछ खोने का दर्द भर है ।

ज्ञान विज्ञान साहित्य
होते हैं समाज के दर्पण
देते रहे हैं समाज को दिशा ज्ञान
लेकिन आज
दरबारी दर्पण की प्रतीति
स्वामिभक्ति का प्रदर्शन
या कुछ इससे इतर
भेड़चाल ।

भोंदू बक्से की निरर्थक बहसें
लिपे पुते से चेहरे
तथाकथित पत्रकार
बायस विश्लेषक
स्वरचित समाचार
झूठ को बार बार
सच साबित करे की कोशिश
लकवाग्रस्त ।

चंद लोगों का दिग्भ्रमित समूह
बरगलाने निकल पड़ा है
देश धर्म आत्म सम्मान
ज्ञान से विरक्त
आत्मीयता को विषाक्त करने 
धन की लोलुपता मे
सब कुछ न्योछावर करने
बुद्धिजीवी मूर्ख या मूर्ख बुद्धिजीवी ।



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Wednesday 4 November 2015

नींद खो गयी

सच ही उन तड़प की रातों मे
मेरी नींद खो गयी ।

जब से उन्हे देखा है
बस उनकी ही यादें हैं
तरुणाई के अलमस्त आलम मे मिलन
उनका यौवन और उनकी बातों मे
मेरी नींद खो गयी ।

कसमकस से भरी मुस्कुराहट
मेरी चाहत बन गयी है
थिरकनों से भरे चूँदर के बीच
चंचल चितवन और उनकी जज़्बातों मे
मेरी नींद खो गयी ।

फागुनी छेड़छाड़ से भरी हसरत
पवन को भी झकझोर गयी है
अरुणिम अधरों से टपकते मद पराग
दिल भ्रमर का गुंजन और उनसे मुलाकातों मे

मेरी नींद खो गयी ।

     ·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
 

Monday 2 November 2015

अनुबंध

लिपट रहा हर रोज
विटप बल्लरी सा
समस्याओं की निधि से
यह मनुपुत्रों का जमघट
चाहकर भी , अनचाहे भी
अहर्निश ।

दफनाये जा रहे हैं
हर रोज
अपनत्व की थाती
लेखनी और तूलिका भी
स्निग्थ भावनाएं
अंधे की लकड़ी
और तो और
अछूता यौवन भी ।

बावला सा यह मनुपुत्र
फिर भी
शिकार बनकर संतुष्ट है
उन कलुषित चरित्रों का
आभारी भी है
शायद हर रोज
छला जाना ही
उसकी नियति बन गयी है
और
उसकी संतुष्टि का साधन भी ।
  
धर्म – अधर्म – राजनीति
रोटी सेकने की भट्ठी
कुर्सी की सीढ़ी
सस्ती लोकप्रियता का साधन
बनकर रह गया है
कराहती जनता का लहू
उनके लिए ।

आरक्षण
हमारे विकास हेतु
नहीं , कत्तई नहीं
वह तो हमसे अपने लिए
चाह रहे हैं
एक अनुबंध पर हस्ताक्षर
जिससे वे लूट सकें
खुलकर
सरेआम हमे ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

भकुयाइल बबुआ

माटी के थाती छोड़ी जब से पराइल बा ।
नीमन बबुआ तभिए से भकुयाइल बा ॥

जिनगी के अहार न विचार परसार
टुटल घर आ दुआर बहत दुखे के बेयार ।

सोगहग नहीं कुछों कूल्हिए पिसाइल बा ॥ नीमन बबुआ.....

हसी ठठा गइल भूल , शूल हियरा मझार
मिटल जाता समूल नाही लउकत उजियार

तन मन धन तीनों कब से छितिराइल बा ॥ नीमन बबुआ....

गाल बस बजावत एनी ओनी समुझावत
थपरी के साथ मे डफलियों न पावत

गीत आ संगीत बिनु गवैयों खिसियाइल बा ॥ नीमन बबुआ......

लिखी बोली आपन भाषा  इहे सबही के आशा
मिली जुली सगरी जाने आवा एकरो के तराशा

रउवा नेह बिनु भोजपुरी पिछूयाइल बा ॥ नीमन बबुआ....




·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

लुगरी से मरजाद ढकाइल

अनकस लागे लगल रिवाज
करकस बाजन बिगड़ल साज
पटवन मे जमीन धराइल
लुगरी से मरजाद ढकाइल ।

खड़हर दुवारा टूटल खटिया
कोरउरो चाउर नहीं मयस्सर
बीपत भइल भूख मिटाइल
लुगरी से मरजाद ढकाइल ।

भकठल चाउर चिंगुरल मनई
दाल भइल पंछोंछर बा
धसल गाल हड़री छितिराइल
लुगरी से मरजाद ढकाइल ।

ढेर गाँवन के बा ई हाल
बच्चा बच्चा भइल बेहाल
साक्षारता के बात भुलाइल
लुगरी से मरजाद ढकाइल ।

कूल्ही चरित्तर महगी लिहलस
चकमक लवकत बकुली धईलस
नीक दिनन के बाट जोहाइल
लुगरी से मरजाद ढकाइल ।

  

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी