Saturday 27 February 2016

फिर नव दीप जलाएंगे


नासमझी के आंदोलन से
फैला जो कटुता का मंजर ।
समता की भाषा कुंद हुई
मड़राता हाथ लिए खंजर ॥
त्रासित मन के घर आँगन को , खुसियों से चहकाएंगे ॥
                           फिर नव दीप जलाएंगे  ॥

हर गहरी खाईं भरना है 
पुष्पित मुक्त कंठ करना है ।
उभरी हुई अराजकता को
जड़ समेत विस्मृत करना है ॥
सृजित जन मन के प्रांगण को , खुसियों से महकाएंगे ॥
                       फिर नव दीप जलाएंगे  ॥

शिक्षा का आँगन स्वच्छ करें
जन जन क्षमता से दक्ष करे
फैल रही विष बेल यहाँ जो
समरसता से निरस्त करें ॥
जीवन के हर जड़ जंगम को , दीक्षा से चहकाएंगे ॥
                   फिर नव दीप जलाएंगे  ॥

प्रदूषित यह जो आरक्षण है
सचमुच क्षमता का भक्षण है
अनवरत प्रगति की राहों मे
सब विद्रुपता का संरक्षण है ॥
स्वस्थ्य स्पर्धा करने को , हर  पथ दमकाएंगे ॥
                  फिर नव दीप जलाएंगे





·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

भ्रमित राजनीति और समाज

का जमाना आ गयो भाया , बेशर्मो की तो लाटरी लग गयी है । कहीं भी राजनीति करने से बाज नहीं आते । जिनके लक्षण परिपक्वता से छत्तीस का रिस्ता रखते हों , अब वो भी अपनी दुंदुभि बजा रहे हैं । भाषाई अस्मिता की तो धज्जियां ऐसे उड़ा रहे हैं जैसे कि बंद पिंजरे से पक्षी को आजाद किया जाता है । शब्द चयन और सम्बोधन की तो लंका लगा दी । न जाने किस दिशा मे समाज को गतिशील करना चाह रहे हैं । कहीं भी कुछ भी बोल देना इनकी दिनचर्या मे शुमार हो चुका है । इन जैसे लोगों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द राजनेता अब खुद को ही शर्मशार महसूस करने लगा है । कुछ भी बोलकर यू टर्न ले लेना इनकी दिनचर्या का प्रमुख अंग हो चुका है ।

                                    सामाजिक ताने बाने की कैसे धज्जियां उड़ाई जाती हैं , इसका ज्वलंत उदाहरण हरियाणा मे अभी देखने को मिला । हरियाणा की एक समृद्ध जाति समूह द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर सरकारी संपदा का इतना विद्रुप तरीके से तहस नहस किया जाना निश्चित रूप से निंदनीय है । आगजनी का खेल उन लोगों ने ऐसे खेला , जैसे बरसात के बाद सड़े पुआल के ढेर मे आग लगाई जाती है । कुछ तथाकथित नेताओं के शह ने हरियाणा जैसे राज्य को करीब 34000 करोड़ की क्षति पहुंचाई । वाह रे आरक्षण मांगने वालों , तुम्हारी आंखो पर कौन सा पर्दा पड़ गया है ? दया आती है तुम्हारी अक्ल पर और कृत्य पर तो घिन्न आती है । इन लोगों ने तो अपनी समृद्ध संस्कृति के इज्जत की धज्जियां ही बेखर दी ।   कैसी होड़ मची है , जिसे देखो वही पिछड़ा बनने को उतारू है ।
                                    सांसद अनुराग ठाकुर और स्मृति ईरानी द्वारा उठाए गए प्रश्नो और दिये गए साक्ष्यों ने जो चित्र प्रस्तुत किया , उससे तो कांग्रेस और वामपंथियों की पूरी की पूरी कलई खोलकर रख दी है । अपने खोते राजनीतिक धरातल के लिए संघर्ष करती कांग्रेस और कितना पतन की ओर जाएगी , इसका मूल्यांकन बेमानी हो चला है । वामपंथ , जो अपना अंतिम चरण जी रहा है , उसने जे एन यू मे तो हद ही कर दी । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर किसका गुणगान और महिमा मंडन किया जा रहा है , इसका निर्धारण ये पार्टियां करें या न करें , जनता अवश्य करेगी । करना भी चाहिए , अन्यथा इन जयचंदों को तो देश बेचने मे भी शर्म नहीं आने वाली । ये पार्टियां अपना कैसा और कौन सा चरित्र प्रस्तुत कर रही हैं , इनका  शायद इनको भान भी नहीं है । लोकतन्त्र के सर्वोच्च संस्थानो का सम्मान भी अब इन्हे नागवार लग रहा है ।

                              दलित राजनीति की झंडाबरदार का हैदराबाद विश्व विद्यालय की जांच समिति द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की अनदेखी करना , उनके अंदर ब्याप्त भय को ही इंगित कर रहा था । शायद आसन्न चुनाओं के मद्दे नजर वामपंथी भी अंबेडकर के पथावलंबी बनने से नहीं झिझक रहे । दलित राजनीति के ये तथाकथित लोग पूंजीवाद के चरम शिखर पर बैठ कर वास्तविक दलितों को सदा से नुकसान पहुंचाते आ रहे हैं । ये झंडाबरदार लोग सिर्फ अपना ही विकास करना जानते हैं और कर भी रहे हैं । अगर हम जागृत नहीं हुये तो ये नव जमींदार शायद जघन्यता की सारी हदें पार कर जाएंगे ।

संसद मे लगातार हो रहे बेतुके बहिस्कार आम लोगों की आशाओं पर कुठाराघात हैं । विकास के रास्ते को लगातार अवरुद्ध किया जाना देश की जनता के साथ पूर्ण रुपेण अन्याय है । लोकतन्त्र के इस पावन मंदिर मे इस तरह का आचरण चिंतनीय है और शर्मनाक भी । संसद के समय का सदुपयोग होना ही चाहिए , यही इस देश के प्रत्येक नागरिक की इच्छा है और संसद की सच्ची उपयोगिता भी शायद यही है ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी       

Tuesday 23 February 2016

भावहीन मन


मन का स्पंदन
भयहीन
प्रफुल्लित तरु
उर आह्यलादित
भ्रमित नहीं कुछ ।

खुद ही ब्याख्यायित
अपनी भाषा
अपनी शैली
स्तरहीन नहीं
किसी नजर मे ।

सबसे अलग
अद्भुत पहचान
अपना सा भान
मान सम्मान
अनुवादित खुद से ।

देखना ही
अब शेष बचा है
अंतरमन को
अंतरमन से
कहाँ बसा एकांत ।

परिस्थितियों से परे
परिचालित परम्पराएँ
उद्वेलित कर गयीं
वह हर पल
जिसे अपना न सका ।
  
स्पंदन अब
लगता क्रंदन सा
जो था कभी
वंदन सा
अभिनंदन सा ।

भावहीन मन
घुटन से लथपथ
मृत्यु की बाट जोहता
क्रिसित बीमार सा
अधमरा ॥



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

भलाई न देखी

भले आदमी की भलाई न देखी
कभी जानकर वो कलाई न देखी ।  
खुले आम मुझको गलत बोलते हैं
कभी जिनकी मैंने लुगाई न देखी ।

आरोपी बना जिस खजाने का हूँ मै
उसकी अभी तक चिनाई न देखी ।
अकेला था मिलने नहीं कोई आया
जमाने की ऐसी रुसवाई न देखी ।

कांटे ही मिले मुझको हर डगर मे
कहीं भी गमो की दवाई न देखी  ।
निपटता भला कैसे उन जालिमो से
जिन आखों मे दया की छाईं न देखी ।

बहुत ही निपुण हैं अपनी कला मे
उन हाथो के जैसी सफाई न देखी ।
जकड़ा गया जिस भी पाश मे मै
उससे किसी की रिहाई न देखी ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Saturday 20 February 2016

समाचार चैनलों की कथा

क्या जमाना आ गयो भाया , जिधर देखो उधर ही महिमा मंडन हो रहा है । कहीं देशद्रोह का तो कहीं विद्रोह का , जिसे देखो वही अपनी दुकान सजा के बैठ गया । जहां कभी मक्खियाँ भी नहीं भिनभिनाती थीं वो भी अपने अपने प्रॉडक्ट बेचने निकल पड़े हैं । वाह रे लोकतन्त्र , ये तेरा कैसा स्वरूप है । आमजन तो दिग्भ्रमित हो गया दीख रहा है , किसे सच माने किसे गलत । दोनों ही अपने को सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद साबित करने मे कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं । देश के मान सम्मान की तो फिक्र ही नहीं है , कुछ भी बोलो यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जो है । जिसकी कहीं पूछ नहीं होगी वो तो पक्का आपके पीछे खड़ा हो लेगा और फिर तो आपकी चाँदी ही चाँदी है । बन गए बैठे बैठाये कर्णधार । न हर्रे लगी ना ही फिटकरी रंग चोखा ही चोखा ।
                                         समाचार चैनलों की कथा ही निराली है , किसी एक समाचार को 2-3 समाचार चैनलों पर देख लीजिये , आप दिग्भ्रमित हुये बगैर रह ही नहीं सकते । उसके बाद तो स्वतः आप अपने बाल नोचते दिखाई पड़ेंगे । इन चैनलों ने तो कार्टून चैनल की उपयोगिता ही समाप्त कर दी , जिसे देखकर कभी बच्चे अपने मन बहला लिया करते थे । कोई राष्ट्रीय गीत को जोरदार तरीके से अपमान जनक बताता देख जाएगा और कोई तीरंगे को ही बेकार बताता मिल जाएगा । फिर तो जिसने इस देश के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा रखा हो , उसकी आंखे तो अश्रुपूरित हुये बगैर रह ही नहीं सकती । ऐसे मे रिटायर्ड जनरल का भावुक हो जाना अति स्वाभाविक ही है । कुछ लोग तो इस ताक मे बैठे हैं की उस जनरल साहब को ही संघी बता दें । या फिर उन्हे किसी का एजेंट करार दे दें ।
                               

              सुनते चले आ रहे हैं कि मीडिया लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है । इसमे कितना सच है यह एक विचारणीय प्रश्न बन चुका है । अब तो यह प्रतीत होता है कि यह स्तम्भ पूर्ण रुपेण रुग्ण हो चुका है । इसे समुचित उपचार कि आवश्यकता है । इसके लिए भी लगता है कोई ट्रायल या आयोग कि जरूरत पड़े अभी तो कहा नहीं जा सकता । लेकिन आज कि यह एक अनिवार्य आवश्यकता भी है कि इसका समुचित उपचार किया जाय , चाहे इसके लिए कोई भी कदम उठाना पड़े । कभी कभी तो लगता है कि किसी भी कर्मठ ब्यक्ति को मीडिया पचा भी नहीं पाता । अतएव इसकी पाचन क्रिया भी संदेह के घेरे मे है ।
                                  अब एक अजीब चलन आ चुका है , जिस किसी भी मामले कि भद्द पीटनी हो , इन समाचार चैनलो से संपर्क हर कोई साध लेता है । ये गंभीर से गंभीर मामले की हवा निकालने मे बड़े ही सिद्ध हस्त हैं । JNU प्रकरण इसका ताजा तरीन उदाहरण है । गला फाड़ प्रतियोगिता के स्वयंभू विजेता इन चैनलो को देश का राष्ट्रीय ध्वज ही असहनीय लगता है । एक आम भारतीय की सोच तो यह कहती है कि इस प्रकार के चैनलों की भारतीय समाज मे कोई उपयोगिता ही नहीं है । अस्तु ! भ्रष्टाचार की इन तथाकथित दुकानों को बंद कर देना ही उचित रहेगा ।

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी   

Thursday 18 February 2016

दीमकों की प्रजातियाँ

का जमाना आ गयो भाया, शर्मोहया की तो डोली उठ गयी । घरवे मे जुत्तम पैजार , लग रहा है कि जैसे नाव मे कई सारे छेद हो लिए हों  । पानी तेज धार से नाव मे घुसने  लग रही हो  । तभी तो सारे के सारे चूहे बिलबिला गए हैं । बड़े वाले चूहों की तो बात ही निराली निकली , ये ससुरे माझी की पतवार ले नदी मे कूद निकलने की तैयारी मे जुट गए हैं । माझी तो  अभी भी मस्त हो त्योरी चढ़ाने मे ब्यस्त है । सब एक दूसरे को धता बताने मे लग लिए हैं । इधर लस्सी धरी धराई खट्टी हो ली । इसे तो अब साइकिल वाला भी सीधे मुँह पूछ नहीं रहा । प्रेम के महीने मे ऐसी तकरार , चाकलेट डे ही मना लिए होते , कम से कम गोबरउरा  के जनम से तो बच ही जाते ।

                                         बचपन से सुनते आ रहे हैं कि दीमक का लग जाना बहुत ही खतरनाक होता है ।ई ससुरी दीमक भी अजीब बला है , कहीं भी लग जाती है । जाति, धरम ,संप्रदाय , प्रदेश , देश और तो और मंदिर और मस्जिद भी इसके लिए अछूत नहीं हैं । मंदिर चाहे वह शिक्षा का ही क्यों ना हो । दीमक सभी को खोखला बनाने मे पूर्ण सक्षम है ।
                                   
                     अब एक नया बखेड़ा शुरू हो गया है । एक बहुचर्चित शिक्षण संस्थान , अरे वही जिसे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय कहते हैं , उसी का जिक्र कर रहा हूँ । वहाँ तो दीमकों कि कई प्रजातियाँ पुष्पित और पल्लवित होती प्रतीत हो रही हैं । उसका निदान करने वालों का तो पता नहीं , किन्तु उनके कई पालनहार वहाँ अपनी उपस्थिती दर्ज कराने पहुँच चुके हैं । साथ ही खुद को “आँख के अंधे ,नाम नयनसुख “ होने कि कहावत भी चरितार्थ कर रहे हैं । बड़ी ही आसानी से देखि सुनी बातों को झुठला भी रहे हैं । दूध मे मख्खी कैसे निगली जाती है , ये कोई इनसे सीखे । ये बड़े चाव से मख्खी का स्वाद भी ले रहे हैं । ये वो लोग हैं जिन्हे आँख के होते हुये भी न तो दिखाई देता है और न ही कान के रहते सुनाई देता है । इनके घड़ियाली आंसु देखकर तो सुनामी को भी शर्म आने लगी है । कड़ी निंदा करने वाला रिवाज भी तो बेमानी हो चला है ।

                     देश के अन्तःस्थल मे स्थित संस्थान का इस तरह दिग्भ्रमित होना निश्चय ही शर्मनाक है । देश कि एकता और अखंडता को तार तार करते उनके स्लोगन से तो आम जन भी दुखी हो चुका है । किसी विषय पर मत भिन्नता होना लोकतन्त्र का प्राण है लेकिन वह राष्ट्रीयता और राष्ट्र पर कुठराघात न करे । संभवतः अभिव्यक्ति कि आजादी का राग भी तभी तक के लिए है , जब तक कि राष्ट्र कि अस्मिता सुरक्षित और समृध्ध है । इसकी कीमत पर तो कुछ भी असह्य है , अहितकर है , विनाशकारी है । इससे तो सभी को बचना चाहिए । राष्ट्र के प्रति अपने नैतिक दायित्व का पालन भी सभी का प्रथम धर्म है । इसकी गरिमा बरकरार रखना कर्तब्य भी है ॥     


·                                                                                                                       *  जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 





Friday 12 February 2016

बसंत दीदार


मन अगराइल
सरसो फुलाइल
बहे लागल बसंती बयार
मोरा दिल गुलजार
भइलें खुदही से प्यार ।

नाचे मोर रोम रोम
खिलल बा अब व्योम
अमवों मोजराइल बा
भँवरा गुन  गुनाइल
गोरी करेलीं अनंत शृंगार ।

दुअरे चइता गवाइल
कुहूंकत कोइला सुनाइल
अंग अंग महकाइल
पिया मोर बेल्हमाइल
देखत गोरिया निहार ।

बाग बगइचा हरियाइल
हिया हुलसाइल
आइल मदन त्योहार
मचलत बहियाँ क हार 
सखी री ! इहे बसंत दीदार । 



·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

Sunday 7 February 2016

अवघड़ आउर एगो रात

रहल होई १९८६-१९८७ के साल , जब हमारा के एगो अइसन घटना से दु –चार होखे के परल , जवना के बारे बतावल चाहे सुनवला भर से कूल्हि रोयाँ भर भरा उठेला । मन आउर दिमाग दुनों अचकचा जाला । आँखी के समने सलीमा के रील मातिन कुल्हि चीजु घुम जाला । इहों बुझे मे कि सांचहुं अइसन कुछो भइल रहे , कि खाली एगो कवनों सपना भर रहे । दिमाग पर ज़ोर डाले के परेला । लेकिन उ घटना खाली सपने रहत नु त आजु ले हमरा के ना किरोदत ।
                     हमरा घर से चार – पाँच घर छोड़ के एगो हमरे गोतिया बंसी के घर बा । ओ घटना से असली संबंघ त बंसी के ही बा । हर गाँवन मे चिकारी करे वाले लोगन के फौज होले , हमनियों के इहवाँ बा । कुछ लोग उनकरा के रिगावते रहस , काहे ला  कि उनका कवानों संतान ना रहुए । बंशी संतान खाति पूजा फरा आउर झाड फूक बहुत करस आउर करावस । कबों कबों ओझा सोखा के भी बोलावस , आउर अपना घर मे हवन पूजन भी करावस । झूठ जाने साँच उनका मन मे ई बात रहे कि कवनों ऊपरी चपरी के चक्कर उनका घरे पर बा । जवन कि उनका बंश बढला से रोकत बाटे , चाहे ई ना चाहत होखे कि उनका घर मे कवनों संतान होखे ।
                                                              जेठ के महीना रहल होई , जब कुल्हि स्कूल बंद हो जालन स । किसानो लो अपना फ़सली कामन से फारिग रहेला । गांवन मे गर्मिए मे शादी वियाहो ढेर होला । कुल मिलाके फुरसते फुरसत रहेला । बंशी ओहि लगले  एगो अवघड तांत्रिक के अपना घरे बोलवलन लेकिन जब उ तांत्रिक उनका दुआर के निगचा के कहलस कि दिन मे हम राउर घर मे ना जा सकीला , ई काम हमरा के रात मे करे के परी । रात के हम तहार घर मंतर से बान्हब ,फेरु घर मे प्रवेश करब ।  तबे कवनों उताजोग हो सकेला ।
                     बंशी के घरे के नीयरे एगो हमरे आउर गोतिया के घर बा , जेकरा के हमनी सभे चाचा बोलीले । उनका घरे पर अवघड के रुके क इंतिज़ाम कइल गइल । फिर त चाचा के घरे ओह अवघड बाबा से मिले खाति गाँव भर से लोग जुटे लागल । घंटा दू घंटा तक उ बाबा गाँव के लोगन बात सुनलस आउर कुछ लोगन के समाधान बतवलस , फिर अपना पुजा मे बईठ गइल । तनी चुकी देर मे संउसी भीड़ छट गइल । सभ केहु अपना अपना घरे चल गइल । चाचा से उ अवघड़ आपन घनिष्ठता बना लीहलस । चाचा जवन हाईस्कूल मे पढ़ावत रहनी , से उहो चाचा के मास्टर कह के बोलावस । कुल जमा ई मानल जा सकत बा कि उ सभके अपना भरम जाल मे फँसा लीहलस । चाचो उनका बाबा कह के बोलावस । चाचा फेरु हमरा के बोलवलन आउर ओह अवघड बाबा से हमरो परिचय करा देहलन ।
              धीरे धीरे शाम हो गइल । हमरो के रात मे चाचा के घरे रुके के पड़ गइल । रात सब केहु भोजन क के सो गइल । रात के मजगला के बाद अवघड़ बाबा के करतब चालू भइल । अचके मे हमार नीद खुलल आउर हम अवघड़ बाबा के संगे सड़क पर पवनी । बाबा अपना भारी भरकम आबाज मे आदेश सुनवलन , चुपचाप संगे चलत रह बचवा । बाबा आगे आगे आउर हम उनका पीछे पीछे चल देहनी । हमरा गाँव के नजदीके मे जंगल बा । बाबा जंगल के ओरी बढ़े लगलन । आउर हमार डरो धीरे धीरे बढ़े लागल । बाबा के न जाने कइसे ई बुझा गइल , फेरु उ हमरा के ढांढस ई कह के बंधवलन “ डेरो मत बचवा “ , बस चुपचाप चलत रह । जंगल के रस्ते मे एगो भैरव मंदिर बाटे , बाबा ओनी सिर झुकावत आगा बढ़ने आउर हम उनका पीछे जंगल मे हेल गइनी । जंगल मे करीब 50 कदम अंदर गइला के बाद बाबा फेरु हमरा से कहलन “ बचवा तू इहवें खड़ा रह । हम ओनिए खाड़ हो गइनी । बाबा एगो झाड़ के नगीचे चहुंप के आपन एगो गोड जमीन पर पटकलस , फेरु त अइसन कुछ भइल कि हम खड़े खड़े काँपे लगनी । एगो मुरदा कफन मे लिपटल जमीन के ऊपर आ गइल । बाबा ओहि पर बइठ के थोड़ी देर कवनों मंतर के जाप कइलस । फेर ओकर कफन हटा के मास खाये लगलन । हमरा दर के मारे पूरा शरीर कांपत रहे , बाकी उहवाँ चुप खड़ा रहले के अलावा हमरा लगे कवनों दोसर उपाय ना रहे । आपन भोजन पूरा कइला के बाद , बाबा खाड़ दोबारा से आपन गोड़ जमीन पर पटकलन , त उ मुरदा गाइब हो गइल । फेरु हमरा के लौटे के कहलन , पलक झपके भर के देरी मे हम फेरु ओहि सड़क पर आ गइनी जहवाँ हमार नीद खुलला के बाद अपना के पावले रहीं । फेरु कब आउर कइसे हम  आउर उ बाबा आपन आपन बिस्तर पर पाहुच गइनी जा ई आजू ले हमरा के ना बुझाइल । लेकिन छत पर जहवाँ हमनी के सुतल रहनी जा , चाचा कपारे हाथ ध के बइठल रहने । शायद उनकरो नींद खुल गइल रहे आउर उहवाँ हमरा आउर बाबा के गायब देख के घबरा गइल रहें । घर के कूल्ही दरवाजा खिड़की देख चुकल रहें , कूल्ही उनका के बंदे मिलल रहे । फेरु बाबा चाचा से बोलने , काहों मास्टर काहें बइठल बाड़ा ? चाचा घबरा गइने , आ हमरा ओरी देखत कहने , ना बाबा हम ठीक बानी ।
                                         अब तू सभे सो जा लो , हमरा के काम करे के बा , ई क़हत बाबा जमीन पर लेट गइलन , फिर हमनियों के बिस्तर पर लेट गइनी जा । नींद हमनी के कब अपना कब्जा मे ले लीहलस , ई ना बुझाइल । हमनी के सुतला के बाद अवघड़ बाबा बंशी के घरे जा के आपन तांत्रिक क्रिया कलाप कइले कि ना , हमनी के ना पता चलल । भोरे सबका जगला के बाद अवघड़ बाबा हमनी से कहने कि राती के उ आपन सारा काम कर देले बाड़ें । एकरा संगही उ इहों बता दीहने कि बंशी के घरे संतान ना हो सकेले । साँचो आजुओ ले बंशी के संतान सुख ना हो सकल बा । जब कबो हमरा ई घटना मन पर जाला , हमार रोआ रोआ काँप उठेला आउर अवघड़ बाबा के चेहरा आँखी मे चौंध जाला ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी