असमंजस , असमय पीड़ा का
फिसल रही मुस्कान, क्रीड़ा का
आँख उनींदी , तन मे अकड़न
सच को कैसे मै जताऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥
हिल – मिल , सारे तथ्य चुराकर
झूठ को सच और सच झूठ बनाकर
प्रथम प्रविष्ठि , पूर्ण सशंकित
पीठ पे कितने खंजर खाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥
बेवजह संघर्ष , चाल निरापद
निगमित हो कुंठित हुआ कद
पर पीड़ा से सुख का अनुभव
किसको है , मै क्या बताऊँ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥
इठलाना क्या , इतराना क्या
अनजाना पथ , पथिक पराया
मेरी भ्रांति , या नासमझी
इस मन को कैसे समझाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥
हर पल उलझन, नया उलहना
शंकित धड़कन, नई उपासना
मंदिर मस्जिद , योगी तांत्रिक
और कहाँ अर्जी लिखवाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥
पीकर ज्वाला , खा अंगारे
तूफानो को लगा किनारे
अनुराग मे सिंहनाद यह
बन भैरव अब हाथ उठाऊँ ॥
ऐ ज़िंदगी तेरे कितने रंग गिनाऊँ ॥
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
No comments:
Post a Comment