सन्नाटे को चीरती , चिग्घाड़ती
निरापद सी , पटरियों को रौंदती
गंतव्य की ओर अग्रसरित
निरीह है , अपनी भारतीय रेल ।
अनगिनत उद्घोषों के तले
दबी कुचली सी , सभी से छली हुई
वैभव और विकास से कोसों दूर
अपराधिनी है , अपनी भारतीय रेल ।
भ्रष्टाचार ग्रसित , कलुष अभिसिंचित
सुविधा विहीन , स्वच्छता से दूर
सुरक्षा के नाम के दिखावे पर जीवित
भयभीत है , अपनी भारतीय रेल ।
आम आदमी के नाम से आम आदमी से दूर
सुविधा भोगियों के लिए आरक्षित
कभी बिलखती ,कभी सकुचाती, कभी
इतराती
कुंठित है , अपनी भारतीय रेल ।
यात्रियों को चिढ़ाते गंदगी से भरे पूरे स्टेशन
मुफ्तखोर कर्मचारियों से सजा विभाग
खुद पर आँसू बहाते , कल पुर्जों से सुसज्जित
लकवाग्रस्त है , अपनी भारतीय रेल ।
परिवर्तन की बाट जोहती , बूढ़ी , त्रासित
सिर्फ एक व्यवहार दूढ्ती, पूरी शापित
कौन बनेगा दीप , जलाए खुद का दीपक
आशान्वित है , अपनी भारतीय रेल ।
शिक्षा हो केवल सरकारी , सबकी करो मान्यता रद्द
योग्यता को केवल मिले , प्रश्रय यत्र - सर्वत्र
भ्रष्टाचार विहीन व्यव्स्था खोलेगी यह पथ
अभावमुक्त हो निखरेगी , अपनी भारतीय रेल ।
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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