Saturday 9 January 2016

गइल भइसिया पानी मे




बागड़ बिल्ला नेता बनिहे
करिया अक्षर वेद बखानिहे
केहु के कब्जावल माल पर
मार पालथी शान बघरीहे ।

   कुरसी से जब  पेट भरल ना
       खइलस चारा सानी  मे ।
       गइल भइसिया पानी मे ॥

सगरी मचईहे हाहाकार
करीहे कुल उलटा ब्यापार
मरन अपहरन रहजनी पर
धारिहे आपन एकाधिकार ।
      
       जनता तभियो मन परल ना
              डलिहे डेरवो रजधानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥

नीमन मनई घर छोड़ परइहे
इनकर पीछे  उ उहवों जईहे
लूट खसोट भा हेरा फेरी
कवनों खेला न कबों भुलईहे ।

       इनका बुझला अतनों सरल ना
              रेकड़ तुरीहे बेईमानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥

कुरसी खाति कुछुवों बोलल
बिन जोगाड़ के धंधा खोलल
जनता के मरजाद का होला
कुकुर नीयन केनियों डोलल ।

      

       जबले उनकर जेब भरल ना
              ओरहन गइल कहानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥


पढ़ लिख के अब बस्ता ढोवल
मउज करत बा भर दिन सोवल
करम के हाल बा लोलक लइया
आन्हर लग्गे अब बइठल रोवल ।

       अतना देखलो पर भी मरल ना
              कुल बोरलस उ जवानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥

कतों घास के रोटी आउर कतहु भूखे पेट
कबों कबों त पनियों से नाही होला भेंट
पीढ़ी दर पीढ़ी बस करजे  देहलें
तबों घरे पर नाही  चढ़ल फ़रेठ ।

       अबो ले डरवार बनल ना
              भइल छेद ओरवानी मे ।
              गइल भइसिया पानी मे ॥


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी


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