Saturday 24 October 2015

: बस कोलाहल को जीता हूँ :

अधर्म धर्म धरती का जीवन
अति उमंग से सज्जित उपवन ।
ध्वनि कुटिलता लिए पल्लवित
सहज भेदती मानव मन ।

घर बाहर मंदिर मस्जिद
हर जगह हलाहल पीता हूँ ।
बस कोलाहल को जीता हूँ ।

राजनीति का सतही पाठन
कांटो के आलिंगन मे है ।
रक्त पिपाशु के आंखो सा
मानवता के क्रंदन मे है ।

भूत भविष्य या वर्तमान की
स्मृतियों से रीता हूँ ।
बस कोलाहल को जीता हूँ ।

भटक चुकी है नियत राह से
समरसता की परछाईं भी ।
लासों के ढेर गिरे इतने
उथली हो गयी खाईं भी ।

गाँव गली के हर नुक्कड़ का
गुरुवाणी , कुरान या गीता हूँ ।
बस कोलाहल को जीता हूँ ।

एहसास नहीं आभाष नहीं
विकृत अदाओं का मंजर है ।
गहरा स्वार्थ पहचान विखंडित
हर हाथ लिए एक खंजर है ।

करुणा ममता खंडित समता
भंडारण की परिणीता हूँ ।
बस कोलाहल को जीता हूँ ।

आहार नहीं व्यवहार नहीं
दंश विरक्ति के सहता जाता ।
सरहद घर की चौखट बनती
मातमी ध्वनि मे कहता जाता ।

निर्मम निर्दय नियम नियंता
निनादों से निर्मिता हूँ ।
बस कोलाहल को जीता हूँ ।

दुल्हन मंडप शादी सेहरा
शुभकामनाओं का घोर अभाव ।
ढूढता फिर रहा नगर डगर
कहाँ बसी खुसियों की छाँव ।

किसी भी छड़ कटने को आतुर
एक उद्घाटन का फीता हूँ ।
बस कोलाहल को जीता हूँ ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

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