कुछों को लगता है
मै शब्द गढ़ता हूँ
अभियंत्रण का
पाठ पढ़ता हूँ
बड़ी ही बेदिली से
संवाद करता हूँ ।
कुछों को लगता है
राजनीति जीता हूँ
वक्त बेवक्त ही सही
अपमान पीता हूँ
अनजाने मे समझ बैठा
किसी उदघाटन का फीता हूँ ।
कुछों को लगता है
व्यापार करता हूँ
अकथ्य ही सही
व्यवहार करता हूँ
नित नई वेदना का
अंबार भरता हूँ ।
कुछों को लगता है
बस विहार करता हूँ
अन्यथा ही दर – बदर
मंत्रोचार करता हूँ
आज से ही अग्र युग का
आधार धरता हूँ ।
कुछों को लगता है
उन्माद देता हूँ
अवसाद हर घड़ी पीकर
आह्लाद देता हूँ
तिमिर मे ऊँघते पथ पर
दीप संचार देता हूँ ।
कुछों को लगता है
बस बातें बनाता हूँ
समय के साथ चलकर
उनके खाते बताता हूँ
दिल से मूल्यांकन तो करो
बहुतों को न भाता हूँ ।
कुछों को लगता है
सब कुछ जुमलाबाजी है
समय के साथ चलना भी
क्या जालसाजी है ?
रुको जरा , सोचकर देखो
सच मे कौन कामकाजी है ?
कुछों को लगता है
अनदेखी होती है
समस्याएँ तो जस की तस
हमारी उम्मीद खोती है
सिर उठाकर तो देखो
विश्व भाल पर चमकता मोती है ।
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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