का जमाना आ गयो भाया,
शर्मोहया की तो डोली उठ गयी । घरवे मे जुत्तम पैजार ,
लग रहा है कि जैसे नाव मे कई सारे छेद हो लिए हों । पानी तेज धार से नाव मे घुसने लग रही हो । तभी तो सारे के सारे चूहे बिलबिला गए हैं ।
बड़े वाले चूहों की तो बात ही निराली निकली , ये ससुरे माझी की पतवार ले नदी मे कूद निकलने की
तैयारी मे जुट गए हैं । माझी तो अभी भी
मस्त हो त्योरी चढ़ाने मे ब्यस्त है । सब एक दूसरे को धता बताने मे लग लिए हैं ।
इधर लस्सी धरी धराई खट्टी हो ली । इसे तो अब साइकिल वाला भी सीधे मुँह पूछ नहीं
रहा । प्रेम के महीने मे ऐसी तकरार , चाकलेट डे ही मना लिए होते ,
कम से कम गोबरउरा के जनम से तो बच ही जाते
।
बचपन से सुनते आ रहे हैं कि
दीमक का लग जाना बहुत ही खतरनाक होता है ।ई ससुरी दीमक भी अजीब बला है ,
कहीं भी लग जाती है । जाति, धरम ,संप्रदाय , प्रदेश , देश और तो और मंदिर और मस्जिद भी इसके लिए अछूत
नहीं हैं । मंदिर चाहे वह शिक्षा का ही क्यों ना हो । दीमक सभी को खोखला बनाने मे
पूर्ण सक्षम है ।
अब एक नया बखेड़ा शुरू हो गया है । एक बहुचर्चित
शिक्षण संस्थान , अरे वही जिसे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय कहते
हैं , उसी का जिक्र कर रहा हूँ । वहाँ तो दीमकों कि कई प्रजातियाँ
पुष्पित और पल्लवित होती प्रतीत हो रही हैं । उसका निदान करने वालों का तो पता
नहीं , किन्तु उनके कई पालनहार वहाँ अपनी उपस्थिती दर्ज कराने पहुँच चुके
हैं । साथ ही खुद को “आँख के अंधे ,नाम नयनसुख “ होने कि कहावत भी चरितार्थ कर रहे हैं
। बड़ी ही आसानी से देखि सुनी बातों को झुठला भी रहे हैं । दूध मे मख्खी कैसे निगली
जाती है , ये कोई इनसे सीखे । ये बड़े चाव से मख्खी का स्वाद
भी ले रहे हैं । ये वो लोग हैं जिन्हे आँख के होते हुये भी न तो दिखाई देता है और
न ही कान के रहते सुनाई देता है । इनके घड़ियाली आंसु देखकर तो सुनामी को भी शर्म
आने लगी है । कड़ी निंदा करने वाला रिवाज भी तो बेमानी हो चला है ।
देश के अन्तःस्थल मे स्थित संस्थान का इस तरह
दिग्भ्रमित होना निश्चय ही शर्मनाक है । देश कि एकता और अखंडता को तार तार करते
उनके स्लोगन से तो आम जन भी दुखी हो चुका है । किसी विषय पर मत भिन्नता होना
लोकतन्त्र का प्राण है लेकिन वह राष्ट्रीयता और राष्ट्र पर कुठराघात न करे ।
संभवतः अभिव्यक्ति कि आजादी का राग भी तभी तक के लिए है ,
जब तक कि राष्ट्र कि अस्मिता सुरक्षित और समृध्ध है । इसकी कीमत पर तो कुछ भी
असह्य है , अहितकर है , विनाशकारी है । इससे तो सभी को बचना चाहिए ।
राष्ट्र के प्रति अपने नैतिक दायित्व का पालन भी सभी का प्रथम धर्म है । इसकी
गरिमा बरकरार रखना कर्तब्य भी है ॥
· * जयशंकर
प्रसाद द्विवेदी
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