क्या जमाना आ गयो भाया ,
जिधर देखो उधर ही महिमा मंडन हो रहा है । कहीं देशद्रोह का तो कहीं विद्रोह का ,
जिसे देखो वही अपनी दुकान सजा के बैठ गया । जहां कभी मक्खियाँ भी नहीं भिनभिनाती
थीं वो भी अपने अपने प्रॉडक्ट बेचने निकल पड़े हैं । वाह रे लोकतन्त्र ,
ये तेरा कैसा स्वरूप है । आमजन तो दिग्भ्रमित हो गया दीख रहा है ,
किसे सच माने किसे गलत । दोनों ही अपने को सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद साबित करने
मे कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं । देश के मान सम्मान की तो फिक्र ही नहीं है ,
कुछ भी बोलो यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जो है । जिसकी कहीं पूछ नहीं होगी वो
तो पक्का आपके पीछे खड़ा हो लेगा और फिर तो आपकी चाँदी ही चाँदी है । बन गए बैठे
बैठाये कर्णधार । न हर्रे लगी ना ही फिटकरी रंग चोखा ही चोखा ।
समाचार चैनलों की कथा ही
निराली है , किसी एक समाचार को 2-3 समाचार चैनलों पर देख
लीजिये , आप दिग्भ्रमित हुये बगैर रह ही नहीं सकते । उसके बाद तो स्वतः
आप अपने बाल नोचते दिखाई पड़ेंगे । इन चैनलों ने तो कार्टून चैनल की उपयोगिता ही
समाप्त कर दी , जिसे देखकर कभी बच्चे अपने मन बहला लिया करते थे ।
कोई राष्ट्रीय गीत को जोरदार तरीके से अपमान जनक बताता देख जाएगा और कोई तीरंगे को
ही बेकार बताता मिल जाएगा । फिर तो जिसने इस देश के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा रखा
हो , उसकी आंखे तो अश्रुपूरित हुये बगैर रह ही नहीं सकती । ऐसे मे
रिटायर्ड जनरल का भावुक हो जाना अति स्वाभाविक ही है । कुछ लोग तो इस ताक मे बैठे
हैं की उस जनरल साहब को ही संघी बता दें । या फिर उन्हे किसी का एजेंट करार दे दें
।
सुनते चले आ रहे हैं कि मीडिया लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ
है । इसमे कितना सच है यह एक विचारणीय प्रश्न बन चुका है । अब तो यह प्रतीत होता
है कि यह स्तम्भ पूर्ण रुपेण रुग्ण हो चुका है । इसे समुचित उपचार कि आवश्यकता है
। इसके लिए भी लगता है कोई ट्रायल या आयोग कि जरूरत पड़े अभी तो कहा नहीं जा सकता ।
लेकिन आज कि यह एक अनिवार्य आवश्यकता भी है कि इसका समुचित उपचार किया जाय ,
चाहे इसके लिए कोई भी कदम उठाना पड़े । कभी कभी तो लगता है कि किसी भी कर्मठ
ब्यक्ति को मीडिया पचा भी नहीं पाता । अतएव इसकी पाचन क्रिया भी संदेह के घेरे मे
है ।
अब एक अजीब चलन आ चुका है ,
जिस किसी भी मामले कि भद्द पीटनी हो , इन समाचार चैनलो से संपर्क हर कोई साध लेता है ।
ये गंभीर से गंभीर मामले की हवा निकालने मे बड़े ही सिद्ध हस्त हैं । JNU प्रकरण
इसका ताजा तरीन उदाहरण है । गला फाड़ प्रतियोगिता के स्वयंभू विजेता इन चैनलो को
देश का राष्ट्रीय ध्वज ही असहनीय लगता है । एक आम भारतीय की सोच तो यह कहती है कि
इस प्रकार के चैनलों की भारतीय समाज मे कोई उपयोगिता ही नहीं है । अस्तु !
भ्रष्टाचार की इन तथाकथित दुकानों को बंद कर देना ही उचित रहेगा ।
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जयशंकर
प्रसाद द्विवेदी
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