मन का स्पंदन
भयहीन
प्रफुल्लित तरु
उर आह्यलादित
भ्रमित नहीं कुछ ।
खुद ही ब्याख्यायित
अपनी भाषा
अपनी शैली
स्तरहीन नहीं
किसी नजर मे ।
सबसे अलग
अद्भुत पहचान
अपना सा भान
मान सम्मान
अनुवादित खुद से ।
देखना ही
अब शेष बचा है
अंतरमन को
अंतरमन से
कहाँ बसा एकांत ।
परिस्थितियों से परे
परिचालित परम्पराएँ
उद्वेलित कर गयीं
वह हर पल
जिसे अपना न सका ।
स्पंदन अब
लगता क्रंदन सा
जो था कभी
वंदन सा
अभिनंदन सा ।
भावहीन मन
घुटन से लथपथ
मृत्यु की बाट जोहता
क्रिसित बीमार सा
अधमरा ॥
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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