नासमझी के आंदोलन से
फैला जो कटुता का मंजर ।
समता की भाषा कुंद हुई
मड़राता हाथ लिए खंजर ॥
त्रासित मन के घर आँगन को , खुसियों से चहकाएंगे ॥
फिर नव दीप जलाएंगे ॥
हर गहरी खाईं भरना है
पुष्पित मुक्त कंठ करना है ।
उभरी हुई अराजकता को
जड़ समेत विस्मृत करना है ॥
सृजित जन मन के प्रांगण को , खुसियों से महकाएंगे ॥
फिर नव दीप जलाएंगे ॥
शिक्षा का आँगन स्वच्छ करें
जन जन क्षमता से दक्ष करे
फैल रही विष बेल यहाँ जो
समरसता से निरस्त करें ॥
जीवन के हर जड़ जंगम को , दीक्षा से चहकाएंगे ॥
फिर नव दीप जलाएंगे ॥
प्रदूषित यह जो आरक्षण है
सचमुच क्षमता का भक्षण है
अनवरत प्रगति की राहों मे
सब विद्रुपता का संरक्षण है ॥
स्वस्थ्य स्पर्धा करने को , हर पथ दमकाएंगे ॥
फिर नव दीप जलाएंगे ॥
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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