मन्नतों का पर्व है छठ
संस्कृति से ओत प्रोत ।
तत्व की परिकल्पना भी
खोल जाती स्वतः स्रोत ॥
संतुष्टि की सीमा विहीन
त्वरित दृष्ट प्रेरणा ।
शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि
देदीप्यमान चेतना ॥
विश्व का जीवंत ब्रत यह
आत्म शुद्धि से मान तक ।
अर्घ की अवधारणा भी
अवसान से उदीयमान तक ॥
समवेत स्वर मे गुँजती
अन्तःकरण की शुद्धता ।
भानु की स्वर्णिम किरण
स्वतः बेंधती अवरुद्धता ॥
साधना आराधना से
संयमित की संवेदना ।
अभिमान से हो विरत
गूंजीयमान याचना ॥
फैलता आँचल सभी का
सामने प्रत्यक्ष देवता ।
बांटते चलते सभी को
पुरुसार्थ सबको है पता ॥
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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