स्वार्थ परक गढ़ परिभाषा
सुचिता का दीप जलाने निकले
आत्म मंथन का होस नहीं
दूषित मन के अभ्यारण मे ॥
बायस हो चुकी लेखनी
चिंतन के द्वार हुये अवरुद्ध
परिभाषाओं मे होड़ मची है
वातायन के कण कण मे ॥
मौसम की अग्र सूचना
भाषा विज्ञानी देने आए
रंग मंच की गरिमा गाउँ
घिसट रहे अपने कारण मे ॥
उलझन इतनी सुलझाऊँ कब
सभी सत्य झुठलाते हैं
खुद डूबे आकंठ उसी मे
अभ्यस्त हुए दोषारोपण मे ॥
क्या बोलूँ , क्या सुनू सुनाऊँ
सब अपनी राग अलाप रहे
जिसने जाना जब भी जाना
लोग ब्यस्त उसके तर्पण मे ॥
खोज रहे भाषा का स्तर
गाँव गाँव मे शहर शहर मे
ज्ञान दीप शाश्वत सुमधुर सा
चहक उठे उजले दर्पण मे ॥
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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