समझा, जब से सच की पीड़ा ,
बुरा लगा , लगने दो ।।
उजड़े नीड़ , बसंत का पतझड़
नीरीह घटा की उमड़ घुमड़
देखा जब से कृषक
की पीड़ा,
बुरा लगा , लगने दो ।।
छुई – मुई , डरती सकुचती
कठिन राह , पर चलती जाती
सोचा, जब नारी की
पीड़ा ,
बुरा लगा , लगने दो ।।
सब अलमस्त लुटेरे जग मे
जहर भरा उनके रग रग मे
जाना , जब
से राजनीति की क्रीड़ा,
बुरा लगा , लगने दो ।।
संप्रदाय का डर है किसको
सत्ता लोलुप , अभिमान है जिसको
बुत सी बन गयी ,
मन की पीड़ा,
बुरा लगा , लगने दो ।।
घायल पड़ा बीच सड़क पर
देखा , पूछा
, निकल गए ।
मानवता की मृत्यु
है यह
पत्थर को आँसू निकल गए ।
कहते हुये सब सुने
गए
बुरा लगा , लगने दो ।।
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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