Friday 6 March 2015

: आखिर कब तक :

बहुत कठिन है
उखड़े पाँव को जमाना
रेगिस्तान मे
फसल उगाना
लेकिन
असंभव तो नहीं ।

टूटा हुआ विश्वास
पतझड़ प्लावित पेड़
समय के मरहम का
अनवरत
इंतजार ही नियति है ।

बदलता है सब कुछ
स्थापित भी
होता है सब कुछ
पेड़ो की हरियाली
चिड़ियों की चहक
और विश्वास ।

सींचना पड़ता है
इन सबको
ईमानदारी के पानी से
प्रतिबद्धता की खाद
के साथ
स्वयं का जीवन दर्शन ।

देखना समझना परखना
सब हो जाता है
अपनों और परायों की पहचान
समय चक्र की अकिंचन
सी हलचल
मापदंडो को डिगा देती है ।

संघर्षो से दो – चार होना
ही जीवन है
पलायन
कायरता की सम्पूर्ण
निंदनीय
सोपान ही तो है ।

लालच व ईर्ष्या
समूह मे चंद लोगों का
तुष्टीकरण
कारक बन जाता है
विघटन का
विनाश का ।

सोच की स्थिरता
जीवन का ठहराव
आत्ममंथन की प्रक्रिया
वस्तुस्थितियों का
दोहन
पराकाष्ठा है शून्यता की ।

संजीदापन
अनियमित समयान्तराल
निर्णय की
अनदेखी
समाज की अवहेलना
संज्ञा शून्य  या आत्मविभोर
आखिर कब तक  ।


n  जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

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