बैठे थे एक महफिल
मे ,
खाया भी और शगुन लिया ।
साहचर्य की रीति
निभी सारी
,
दिल ने मानो अमन लिया ॥
कौन सा कोना सर्द
हुआ ,
किस कोने से दर्द उठी ।
नफरत की ऐसी हवा
चली ,
जिसने सब – कुछ निगल लिया ॥
बातों के तीर चले
इतने,
कुछ इधर लगे ,
कुछ उधर लगे ।
बिन बात तमाशा बना
दिया ,
बोला, मानो ये शगल किया
।।
तुम डाल – डाल ,
हम पात - पात ,
पैनी नजरें थी साथ – साथ ।
तुम गुरूर मे अंधे
हो ,
आदत का बहाना बना दिया ॥
तुम किसे पसंद या
ना पसंद ,
कभी सोचा बैठ अकेले मे ।
पूरे का पूरा तनहा
हो ,
सोचो कितना गिला किया।।
·
जयशंकर
प्रसाद द्विवेदी
No comments:
Post a Comment