नई व्यवस्था नए दौर के
नई नीति के नए तरीके
छ दिनो
मे छत्तीस कोठी
राजनीति के सार ।। एही लोकतन्त्र
में ॥
छान - बीन के लदल जमाना
मकड़ जाल बा सधल बहाना
जन से बेहतर ‘जन–प्रतिनिधि’ सब,
भरल अटारी चार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
देश से बेहतर विदेश भ्रमड़ हौ
अहित नाम के अधिग्रहण हौ
ले ‘निवेश
का नाम’ रे बंदे,
सबसे भला व्यापार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
हर संभव सब वाद चला के
तद्भव – तत्सम रूप सुना के
‘लूट
सके तो लूट’ के माला,
जनता बा आधार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
इतिहास का वर्तमान से
अभियान सब अभिमान से
बिन विभाग के मंत्री बनल ,
व्यर्थ देश के भार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
तुष्टि - करण आधा अधूरा
असंतुष्ट पूरे का पूरा
सबसे बढ़िया सब कुछ चाही,
‘भयल
देश उद्धार’ ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
मिलल निमंत्रण रात्रि भोज के
आदत बनल रोज रोज के
जोड़ – तोड़ के बने जुगाड़ू,
अनपढ़ , निपट
– गँवार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
सुर – ताल बेढब - बेहाल
‘बेसुरी’ बजी करताल
सूटकेस से हेरा – फेरी,
कुर्सी पे अधिकार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
गाली – गलौज या यात्रा-रैली
शुरू हुई मेला की
शैली
हँगामो से सिर फोडौवल ,
संसद मे जूतम – पैजार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
‘पाप
का घड़ा’ खाली बा अबही
‘छलकी’ जनता जागी तबही
‘होश
संभालो’ समय शेष है ,
उमड़ी अब जनमत के ज्वार ॥ एही लोकतन्त्र में ॥
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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