Friday 6 March 2015

: छलका दर्द :

कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब  कुछ  सहते चले गए  ।
सम्मान की भूख बदस्तूर है ,
सिस्टम से  लड़ते चले गए ।

हर कोई रूठा , छूटा पीछे ,
भूखा  था जो  पैसों  का ।
जख्म का मरहम पाने को,
हम  दूर  होते  चले गए ।

मन की ख्वाहिस दफन हुई
कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
फर्ज़ पड़े हैं जस के  तस ,
हम अपनो से ही छले गए ।

साँसो का हक किसको दूँ मैं ,
किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
अपने ही बिछाये जालों मे
खुद ही फँसते चले गए ।

कौन  है अपना  कौन पराया
सब  पे  है  माया का साया ।
किस-किस दलदल की बात करूँ
पत्थर  मे  धंसते  चले  गए ।

श्याह  अंधेरा हर  कोने मे
कहाँ  दर्द है  अब  रोने मे ।
रीते  दिल  चाह है  रीति,
सब हँस कर देखो चले गए ।


अपनी समझ बताऊँ किसको ,
अपना दर्द सुनाऊँ  किसको।
मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं
यह  कहते सारे चले गए ।

शब्द हुए गुमनाम हैं जब से ,
नज़्म  बनी  बेनाम  हैं तबसे ।
जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं ,
गूंगे  भी  बककर  चले गए ।


·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

No comments:

Post a Comment